शुक्रजनक नलिकाएं वृषण (टेस्टीस) के मध्य पश्च भाग में आकर मिल जाती है। यह क्षेत्र ‘मीडिएस्टीनम टेस्टीस’ (mediastinum testis) कहलाता है। शुक्रजनक नलिकाएं सीधी होकर सीधी नलिकाएं (tubuli recti) बन जाती है जो सूक्ष्म नलिकाओं के जाल, (इसे रेटी टेस्टीस (rete testis) कहा जाता है) में खुलती है। रेटी टेस्टीस (rete testis) के ऊपरी सिरे पर 15 से 20 अपवाही नलिकाएं (efferent ducts) खुलती है।
अपवाही नलिकाएं (इफरेंट डक्ट्स) वृषण के ऊपरी पिछले भाग पर ट्यूनिका एल्ब्यूजीनिया को बेधती हुई प्रवेश करती है तथा ऊपर की ओर बढ़कर नलिकाओं के संवलित भाग (convoluted mass) में पहुंचती है। इससे वृषण के ऊपर और नीचे पार्श्व में एक अर्द्धचंद्राकार आकृति बनती है। यह कुण्डलाकार नली अधिवृषण (epididymis) होती है। अधिक कुण्डलित अधिवृषण की लम्बाई लगभग 4 सेमीमीटर होती है लेकिन यदि उसे सीधा कर दिया जाए तो यह लगभग 6 मीटर (20 फीट) लम्बी हो जाती है। अधिवृषण के निम्नलिखित तीन मुख्य कार्य होते हैं-
यह शुक्राणुओं को परिपक्व होने तक और स्खलित होने तक जमा करके रखती है।
अधिवृषण वृषण से स्खलनीय वाहिकाओं तक शुक्राणुओं को पहुंचाने का कार्य करती है।
इनमें वृत्ताकार चिकनी पेशी होती है जो क्रमाकुंचक संकुचनों द्वारा परिपक्व शुक्राणुओं को लिंग की ओर धकेलने में मदद करती है।
प्रत्येक अधिवृषण में एक सिर, काय और पूंछ होती है। इसका सिर (head) (यह वृषण के शीर्ष भाग के ऊपर फिट रहता है) मुख्यतः संवलित अपवाही वाहिकाओं (convoluted efferent ducts) का बना होता है। काय (body) वृषण के पिछले पार्श्वीय (posterolateral) किनारे पर नीचे की ओर को फैला हुआ भाग होता है। पूंछ (tail) वृषण के तल तक फैला हुआ भाग होता है, जहां इसके संवलन कम होते जाते हैं और अंत में यह फैल (delate) जाते है तथा ऊपर की ओर मुड़कर शुक्रवाहिका (vas deferens) में विलीन हो जाती है।
परिपक्व होने वाले शुक्राणु शुक्रजनक नलिकाओं से निकलकर अधिवृषण में गति करते हैं। शुक्राणुओं के परिपक्व होने तक ये अधिवृषण में जमा होते रहते हैं जहां इन्हें पोषण मिलता है। जब शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो ये स्खलनीय वाहिका के द्वारा शुक्रवाहिका (vas deferens) में प्रवेश करते हैं। यहां ये लगभग 30 दिनों तक जीवित रहते हैं। यदि इस समय में ये स्खलित नहीं होते तो ये अपघटित हो जाते हैं तथा शरीर में पुर्नशोषित (resorbed) हो जाते हैं।
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Sex Therepi
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